वांछित मन्त्र चुनें

आ॒त्मानं॑ ते॒ मन॑सा॒राद॑जानाम॒वो दि॒वा प॒तय॑न्तं पत॒ङ्गम्। शिरो॑ऽअपश्यं॒ प॒थिभिः॑ सु॒गेभि॑ररे॒णुभि॒र्जेह॑मानं पत॒त्त्रि ॥१७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒त्मान॑म्। ते॒। मन॑सा। आ॒रात्। अ॒जा॒ना॒म्। अ॒वः। दि॒वा। प॒तय॑न्तम्। प॒त॒ङ्गम्। शिरः॑। अ॒प॒श्य॒म्। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। सु॒गेभि॒रिति॑ सु॒ऽगेभिः॑। अ॒रे॒णुभि॒रित्य॑रे॒णुऽभिः॑। जेह॑मानम्। प॒त॒त्रि ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:17


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

यानरचना से क्या करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! मैं जैसे (मनसा) विज्ञान से (आरात्) निकट में (अवः) नीचे से (दिवा) आकाश के साथ (पतङ्गम्) सूर्य के प्रति (पतयन्तम्) चलते हुए (ते) आप के (आत्मानम्) आत्मास्वरूप को (अजानाम्) जानता हूँ और (अरेणुभिः) धूलिरहित निर्मल (सुगेभिः) सुखपूर्वक जिन में चलना हो, उन (पथिभिः) मार्गों से (जेहमानम्) प्रयत्न के साथ जाते हुए (पतत्रि) पक्षीवत् उड़नेवाले (शिरः) दूर से शिर के तुल्य गोलाकार लक्षित होते विमानादि यान को (अपश्यम्) देखता हूँ, वैसे आप भी देखिए ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोग सब से अतिवेगवाले शीघ्र चलाने हारे अग्नि के तुल्य अपने आत्मा को देखो, सम्प्रयुक्त किये अग्नि आदि के सहित यानों में बैठ के जल, स्थल और आकाश में प्रयत्न से जाओ आओ, जैसे शिर उत्तम है, वैसे विमान यान को उत्तम मानना चाहिए ॥१७ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

यानरचनेन किं कार्यमित्याह ॥

अन्वय:

(आत्मानम्) (ते) तव (मनसा) विज्ञानेन (आरात्) निकटे (अजानाम्) जानामि (अवः) अधस्तात् (दिवा) अन्तरिक्षेण सह (पतयन्तम्) पतन्तं गच्छन्तं सूर्यं प्रति (पतङ्गम्) (शिरः) दूराच्छिर इव लक्ष्यमाणम् (अपश्यम्) (पथिभिः) मार्गैः (सुगेभिः) सुखेन गमनाधिकरणैः (अरेणुभिः) अविद्यमाना रेणवो येषु तैः (जेहमानम्) प्रयत्नेन गच्छन्तम् (पतत्रि) पतनशीलम् ॥१७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन्नहं यथा मनसारादवो दिवा पतङ्गं प्रति पतयन्तं ते पतत्रि शिर आत्मानमजानाम्। अरेणुभिः सुगेभिः पथिभिर्जेहमानं पतत्रि शिरोऽपश्यं तथा त्वं पश्य ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यूयं सर्वेभ्यो वेगवत्तमं सद्यो गमयितारं वह्निमिव चात्मानं पश्यत, सम्प्रयुक्तैरग्न्यादिभिस्सहितेषु यानेषु स्थित्वा जलस्थलान्तरिक्षेषु प्रयत्नेन गच्छताऽऽगच्छत, यथा शिर उत्तमाङ्गमस्ति, तथैव विमानयानमुत्तमं मन्तव्यम् ॥१७ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही अतिवेगवान असणाऱ्या अग्नीप्रमाणे आपल्या आत्म्याला पहा (जाणा) . ज्यात अग्नी सम्प्रयुक्त केलेला आहे अशा यानात बसून जल, स्थूल, आकाश यात प्रयत्नपूर्वक जाणे-येणे करा. विमान हे यान मस्तकाप्रमाणे उत्तम मानले पाहिजे.